21-11-79  ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन

विश्व परिवर्तन के लिए सर्व की एक ही वृत्ति का होना आवश्यक

आज बाप-दादा चारों ओर के बच्चों के चेतन चित्रों द्वारा व हरेक के चेहरे द्वारा विशेष दो बातें चेक कर रहे हैं। हरेक बच्चा सेन्स (Sense) और इसेन्स (Essence) में कहाँ तक सम्पन्न हुआ हैं अर्थात् ज्ञान सम्पन्न और सर्व शक्ति सम्पन्न कहाँ तक बना है? जिसको रूप-बसन्त कहा जाता है। रूप-बसन्त अर्थात् सेन्स और इसेन्स फुल।

आज बाप-दादा रूहानी ड्रिल करा रहे थे। एक सेकेण्ड में संगठित रूप में एक ही वृत्ति द्वारा, वायब्रेशन्स द्वारा वायुमण्डल को परिवर्तन कर सकते हैं। नम्बरवार हर इन्डीविजुवल अपने-अपने पुरूषार्थ प्रमाण, महारथी अपने वायब्रेशन्स द्वारा वायुमण्डल को परिवर्तन करते रहते हैं। लेकिन विश्व-परिवर्तन में सम्पूर्ण कार्य की समाप्ति में संगठित रूप की एक ही वृत्ति और वायब्रेशन्स चाहिए। थोड़ी-सी महान आत्माओं के वा तीव्र पुरुषार्थी महारथी बच्चों की वृत्ति व वायब्रेशन्स द्वारा कहीं-कहीं सफलता होती भी रहती है लेकिन अभी अन्त में सर्व ब्राह्मण आत्माओं की एक ही वृत्ति की अंगुली चाहिए। एक ही संकल्प की अंगुली चाहिए तब ही बेहद का विश्व-परिवर्तन होगा। वर्तमान समय विशेष अभ्यास इसी बात का चाहिए। जैसे कोई भी सुगन्धित वस्तु सेकेण्ड में अपनी खुशबू फैला देती है। जैसे गुलाब का इसेन्स डालने से सेकेण्ड में सारे वायुमण्डल में गुलाब की खुशबू फैल जाती है। सभी अनुभव करते हैं कि गुलाब की खुशबू बहुत अच्छी आ रही है। सभी का न चाहते भी अटेन्शन जाता है कि यह खुशबू कहाँ से आ रही है। ऐसे ही भिन्न-भिन्न शक्तियों का इसेन्स, शान्ति का, आनन्द का, प्रेम का, आप संगठित रूप में सेकेण्ड में फैलाओ। जिस इसेन्स का आकर्षण चारों ओर की आत्माओं को आये और अनुभव करें कि कहाँ से यह शान्ति का इसेन्स वा शान्ति के वायब्रेशन्स आ रहे हैं। जैसे अशान्त को अगर शान्ति मिल जाए वा प्यासे को पानी मिल जाए तो उनकी ऑख खुल जाती है, बेहोशी से होश में आ जाते हैं। ऐसे इस शान्ति वा आनन्द की इसेन्स के वायब्रेशन्स से अन्धे की औलाद अन्धें की तीसरी ऑख खुल जाए। अज्ञान की बेहोशी से इस होश में आ जाएं कि यह कौन हैं, किसके बच्चे हैं, यह कौन-सी परम-पूज्य आत्मायें हैं! ऐसी रूहानी ड्रिल कर सकते हो?

सेन्स और इसेन्स का बैलेन्स

जब द्वापर के रजोगुणी ऋषि-मुनि भी अपने तत्व योग की शक्ति से अपने आसपास शान्ति के वायब्रेशन्स फैला सकते थे यह भी आपकी रचना हैं। आप सब मास्टर रचयिता हो। वह हद के जंगल को शान्त करते थे आप राजयोगी क्या बेहद के जंगल में शान्ति व शक्ति व आनन्द के वायब्रेशन्स नहीं फैला सकते हो? अब इस अभ्यास का दृढ़ संकल्प, निरन्तर का संकल्प करो। हर मास के इन्टरनेशनल योग का अभ्यास तो शुरू किया है लेकिन अब यही अभ्यास ज्यादा बढ़ाओ। जैसे बसन्त रूप की विहंग मार्ग की सेवा मेले, कान्फ्रेंस व योग शिविर करते हो। एक ही समय संगठित रूप में अनेकों को सन्देश दे देते हो व अखबारों द्वारा टी.वी. व रेडियो द्वारा एक ही समय अनेकों को सन्देश दे देते हो। ऐसे ही रूप अर्थात् याद बल द्वारा, श्रेष्ठ संकल्प के बल द्वारा ऐसी विहंग मार्ग की सर्विस करो। इसकी भी नई-नई इन्वेन्शन निकालो। जब रूपबसन्त दोनों की सेवा का बैलेन्स हो जायेगा तब ही अन्तिम समाप्ति होगी। इसके लिए सर्व संगठित रूप का पुरूषार्थ कौन-सा है? जानते हो? उसी पुरूषार्थ का वर्णन और चित्र अब तक भक्ति में चल रहा है। कौन-सा? पुरूषार्थ का चित्र वा गायन क्या है? समाप्ति का चित्र क्या दिखाया है? स्थापना के वर्णन का चित्र भी वही है और समाप्ति का भी चित्र वही है। ब्रह्मा ने ब्राह्मणों के साथ क्या किया? यज्ञ रचा तो स्थापना का चित्र भी यज्ञ रचा। और समाप्ति में भी यज्ञ में सर्व ब्राह्मणों के संगठित रूप में ‘‘स्वाहा’’ के दृढ़ संकल्प की आहुति पड़े तब यज्ञ समाप्त होना है अर्थात् विश्व-परिवर्तन का कार्य समाप्त होना है। तो पुरूषार्थ कौन-सा रहा? एक ही शब्द का पुरूषार्थ रहा कौन-सा? ‘‘स्वाहा’’ जब स्वाहा हो जाता है तो हाय-हाय के बजाए आहा हो जाती है। परिवर्तन हो गया ना। शब्द कहने में ही मज़ा आता है। अब अपने से पूछो सर्व बातों में स्वाहा किया है? स्वाहा करना आता है।

जब संगठित रूप में पुराने संस्कार, स्वभाव व पुरानी चलन के तिल व जौं स्वाहा करेंगे तब यज्ञ की समाप्ति होगी। तिल और जौं यज्ञ में डालते हैं ना। जब यज्ञ की समाप्ति होती है सब इकट्ठे स्वाहा कर देते हैं, तब ही यज्ञ सफल होता है। अगर एक भी आहुति नहीं पड़ी तो अच्छा नहीं मानते हैं। तो पुरूषार्थ क्या हुआ? संगठित रूप में स्वाहा करो। अभी क्या करते हो? अगर कोई कहता भी है खत्म करो, स्वाहा करो तो क्या करते हैं? स्वाहा करने की बजाए संवाद चल पड़ता है। डिस्कशन चल पड़ता है। वह संवाद बड़े अच्छे होते हैं। उसका विषय ‘‘क्यों’’ और ‘‘कैसे’’ होता है। ऐसे संवाद या डायलॉग बहुत चलते हैं। बाप-दादा के पास वतन में रेडियो पर वह बहुत आते हैं। कभी किसी स्टेशन से कभी किसी स्टेशन से। उस समय के चित्र और एक्शन्स कैसे लगते होंगे? जैसे आपकी दुनिया में टी.वी. पर मिक्की माऊस का खेल आता है ऐसे कभी नयन बड़े हो जाते, कभी मुख बड़ा हो जाता, कभी बहुत तीव्रगति से उतरती कला की सीढ़ी टप-टप करके उतर आते हैं, कभी माया के तूफान में उड़ जाते हैं, बैलेन्स नहीं रख सकते। अभी-अभी हँसते अभी-अभी रोते हैं। ऐसे बाप-दादा भी कई खेल देखते रहते हैं। जैसे सुनने में हँसी आती है तो करते समय स्वयं पर भी हँसी आ जाए तो समाप्त हो जाए। तो सुनाया ‘‘स्वाहा’’ नहीं करते।

सहयोग से स्वाहा

अगर किसी के कुछ पुराने संस्कार रह भी गये हैं वह स्वयं स्वाहा नहीं कर सकते तो संगठित रूप में सहयोगी बनो। कैसे? अगर करने वाला कर रहा है या बोल रहा है तो सुनने वाले, देखने वाले, देखें नहीं, सुने नहीं, तो उसका करना भी समाप्त हो जायेगा। कोई गीत गाने वाला गा रहा है, डान्स वाला डान्स कर रहा है, देखने वाला, सुनने वाला कोई न हो तो स्वत: ही समाप्त हो जायेगा। ऐसा सहयोग दो। इसको कहा जाता है ‘‘स्वाहा’’। जब ऐसे सहयोगी बनेंगे तब ही संगठित रूप में विश्व परिवर्तन कर सकेंगे। सेन्स के साथ इसेन्स भी चाहिए। लेकिन जब सम्पर्क में आते हो, कार्य-व्यवहार में आते हो, कर्म बन्धनी प्रवृत्ति वा शुद्ध प्रवृत्ति में आते हो तो सेन्स की मात्रा ज्यादा होती है इसेन्स की कम। सेन्स अर्थात् ज्ञान की पाइन्टस अर्थात् समझ। इसेन्स अर्थात् सर्व शक्ति स्वरूप, स्मृति और समर्थ स्वरूप। सिर्फ सेन्स होने के कारण ज्ञान को विवाद में ला देते हो। यह तो होगा ही, यह तो होना ही चाहिए। इसेन्स से शक्तियों के आधार पर ज्ञान के विस्तार को प्रैक्टिकल जीवन के सार में ले आते हो। इसीलिए विस्तार व विवाद खत्म हो जाता है। थोड़े समय में स्वाहा कर आहा मैं! और आहा मेरा बाबा! इसी में समा जाते हो। तो सेन्स और इसेन्स दोनों का बैलेन्स रखो तो हर सेकेण्ड स्वाहा होते रहेंगे। संकल्प भी सेवा प्रति ‘‘स्वाहा’’ बोल भी विश्व-कल्याण प्रति ‘‘स्वाह’’ हर कर्म भी विश्व परिवर्तन प्रति स्वाहा। तो अपनापन अर्थात् पुरानापन स्वाहा हो जायेगा। बाकी रह जायेगा - बाप और सेवा। तो समझा, क्या पुरूषार्थ करना है। अपने देह की स्मृति सहित-स्वाहा। तब एक सेकेण्ड में वायब्रेशन्स द्वारा वायुमण्डल को परिवर्तन कर सकेंगे। समझा?

ऐसे सदा समर्थ, सदा सर्व के परिवर्तन करने में सहयोगी, सेन्स और इसेन्स का बैलेन्स रखने वाले विश्व-परिवर्तन की एक ही धुन में रहने वाले, बाप और सेवा और कोई बात नहीं, ऐसी स्थिति में चलने वाले, ऐसे बाप समान महान आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

हुबली पार्टी - सदा बाप और सेवा में मगन रहते हो? जो सदा बाप और सेवा में तत्पर रहते हैं, उनकी निशानी क्या होगी? सदा विघ्न-विनाशक - कोई भी विघ्न उनकी लगन को मिटा नहीं सकते। कोई भी तूफान उस जागती ज्योति को बुझा नहीं सकते। ऐसी जागती-ज्योति हो? अखण्ड ज्योति। भक्ति में भी आपके चित्रों के आगे अखण्ड ज्योति जलाते हैं। क्यों जलाते हैं? चेतन्य स्वरूप में अखण्ड ज्योति स्वरूप रहे हो तब अखण्ड ज्योति का यादगार रहता है। ज्योति के आगे कोई आवरण तो नहीं आता, तूफान हिलाता तो नहीं हैं? अपना भी स्वरूप ज्योति, बाप भी ज्योति और घर भी ज्योति तत्व है। तो सिर्फ ज्योति शब्द भी याद रखो तो सारा ज्ञान आ जाता है। यही एक ‘‘ज्योति’’ शब्द की सौगात ले जाना तो सहज ही विघ्न-विनाशक हो जायेंगे! अच्छा - हुबली निवासियों ने अपने घर-घर में शिवालय बनाया है? पहले शिव के पुजारी रहे हो अभी स्वयं शिववंशी बन गये। अधिकारी बन गये ना। अभी कुछ भी माँगने की चीज़ रही नहीं, सर्व खज़ाने स्वत: प्राप्त हो गये ना! अब अधिकारी बन करके अनेकों को अधिकारी बनाने वाले हो, माँगने वाले नहीं। क्या करूँ - कैसे करूँ, यह सब पुकार समाप्त।

सार - अभी अन्त में सर्व ब्राह्मण आत्माओं की एक ही वृत्ति की अंगुली चाहिए, एक ही संकल्प की अंगुली चाहिए तब ही बेहद का विश्व-परिवर्तन होगा। जब संगठित रूप में पुराने संस्कार, स्वभाव व पुरानी चलन के तिल व जौ स्वाहा करेंगे तब यज्ञ की समाप्ति होगी।